डाकिया का दिल
डाकिया का दिल
एक गाँव में एक विधवा महिला रहती थी। वह अनपढ़ थी। उसका एकलौता बेटा कहीं बाहर नौकरी करता था। वह हर माह अपनी माँ को एक चिट्ठी लिखकर भेजा करता और साथ ही मनीऑर्डर की राशि भी। ढाई सौ रूपये प्रतिमाह। डाकिया उस माँ को बेटे का ख़त पढ़कर सुनाता, मनीऑर्डर की राशि देता और फिर कोई जवाब माँ की ओर से लिखना हो तो, पूछकर लिख देता। यही क्रम चलता रहा। लेकिन एक दिन दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।बेटे की मौत हो गयी। बेटे के एक मित्र के ख़त से यह सूचना माँ को भेजी गयी। डाकिये ने ख़त पढ़ा तो उसके होश उड़ गए। इतने दिनों में डाकिया भी उसकी माँ के साथ आत्मीय हो गया था। अब वह ख़त माँ को पढ़कर सुनाता कैसे? उसने सच्चाई छिपा दी।ख़त को अपने हिसाब से पढ़कर सुना दिया - माँ ! मैं ठीक हूँ, नयी नौकरी ज्वाइन करने वाला हूँ। शायद एक साल तक घर न आ सकूँ। तुम्हें पैसा भेजता रहूँगा, तुम अपना ख्याल रखना ....... आदि। डाकिये ने माँ को हर बार की तरह मनीऑर्डर की 250 रुपये की राशि भी दी। वह डाकिया हर माह ऐसा ही करता था। माँ को काल्पनिक चिट्ठियां पढ़कर सुनाता और मनीऑर्डर की 250 रुपये की राशि देता। लेकिन माँ को पता नहीं कैसे अनुभव हुआ पांच-छः माह बाद उसने एक बार डाकिये को बिठाकर पूछा कि सच्चाई क्या है। उसे आभास हो गया था कि कहीं कुछ अनचाहा हुआ है और जो उससे छिपाया जा रहा है। डाकिये ने बूढ़ी माँ को विश्वास दिलाना चाहा कि यह उसका वहम है। लेकिन निदा फाज़ली के अनुसार - " मैं रोया परदेश में, भींगा माँ का प्यार ! दिल ने दिल् से बात कही,ना चिट्ठी न तार !!" उसका बेटा हर माह मनीऑर्डर भेज रहा है। साथ ही चिट्ठियां भी लिख रहा है। लेकिन माँ का मन नहीं माना। माँ उसे गाँव के मंदिर में ले गयी। उसे कसम खिलायी। तब डाकिये ने सारा सच बता दिया।
कैसा होगा वह डाकिया, जिसने अपने कर्मों को सिर्फ नौकरी तक सीमित नहीं रखा?
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