बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

नौकरी और समाज सेवा : साथ-साथ

      हम डाककर्मी हैं। हमें नौकरी के बदले तनख्वाह मिलती है। लेकिन अगर यह हमारे लिए सिर्फ 'नौकरी' है, तो हम कभी भी सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन नहीं कर सकते। अगर हम ऑफिस आने-जाने के लिए घड़ी  पर नज़र गड़ाये रहेंगे और इस बीच कम-से-कम काम करने की कोशिश करेंगे तो जीवन के हर क्षेत्र में हमारी हार तय है। दूसरी तरफ, अगर हमें ऑफिस के काम में मज़ा आता है, अगर हम प्रेरित होते हैं, बाधाओं को पार करने, चुनौतियों का सामना करने और जुड़ने के अवसरों की तलाश में रहते हैं, तो इस बात की काफी संभावना है कि हम आसानी से सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर सकते है, जीवन के हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए ज़रूरी है कि हम प्रेरित हों, प्रोत्साहित हों, चुनौतियाँ स्वीकार करें एवं भावनात्मक रूप से जुड़ें।   

इशारों को अगर समझो ........

डाकघर में पोस्टमैन की कार्यकुशलता एवं उनकी निष्ठा की एक अलग पहचान रही है। इतना ही नहीं, वे बड़ी सूझबूझ वाले भी होते हैं। एक मिसाल देखिये ---

देवेन्द्र कुमार ठाकुर 

             एकबार ग्रामीण क्षेत्र के एक पोस्टमैन को एक पत्र वितरण के लिए प्राप्त हुआ। पत्र पर मकान संख्या, गली, रोड, डाकघर, जिला सभी कुछ सही-सही लिखे हुए थे। किन्तु पत्र पानेवाले का नाम अंकित नहीं था। पत्र पानेवाले के नाम की जगह पर एक छेद बना दिया गया था और उसको लाल स्याही से घेर दिया गया था। बेचारे  पोस्टमैन का दिमाग एकबारगी चक्कर खा गया। वह सोच में पड़ गया - आखिर पत्र की डिलीवरी दे तो किसे दे? उसने अपने माथे पर जोर दिया। उसने सोचा कि आखिर पत्र में नाम नहीं देने का कारण क्या हो सकता है? पोस्टमैन तो हर गली-मोहल्ले-गाँव-गिराम की खबर रखता है।उसके दिमाग में एक बात आई कि हो सकता है, भारतीय सभ्यता-संस्कृति में एक नारी अपने पति का नाम न लेती है और न लिखती है। हाल ही में छेदी लाल नाम के एक आदमी की शादी हुई है और उसकी नई-नवेली दुल्हन द्वारा पत्र लिखा गया हो। हो सकता है कि पते की जगह पर बनाया गया छेद 'छेदी' को और लाल घेरा 'लाल' को अर्थात छेदी लाल का बोध कराता हो। उसने छेदी लाल के घर का दरवाज़ा खटखटाया और छेदी लाल को वह पत्र दिखाया। ख़त देखते ही छेदीलाल का मुखड़ा  ख़ुशी से खिल गया। अब पोस्टमैन को सारा माजरा समझ में आ चुका था। उसने झट से छेदीलाल को लिफाफा थमा दिया और जाने लगा। छेदीलाल ने उसे रोका और अपने पॉकेट से एक दस का नोट निकलकर दिया और कहा - भैया! तुम मिठाई खा लेना। यह मेरी घरवाली का पहला खत है। (सौजन्य- श्री देवेन्द्र कुमार ठाकुर, उपडाकपाल, भागलपुर डाक प्रमंडल)         

सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

काउन्टर कोना


मुस्कान 
  •  यदि आप मुस्कुरा नहीं सकते तो काउंटर पर काम मत कीजिए। काउंटर पर आनेवाले कुछ ग्राहक क्रोधी स्वभाव के हो सकते हैं। अच्छा व्यवहार करने के लिए अपने अनुभव पर भरोसा कीजिए। इस तथ्य को मानिए कि  छियानवे प्रतिशत ग्राहक समझदार होते हैं। अधिकतर ग्राहक ईमानदारी से गलती स्वीकार करने आप पर भरोसा कर सकता है।  
  • मुस्कुराओ, क्योंकि हर किसी में आत्मविश्वास की कमी होती है और किसी दूसरी चीज की अपेक्षा मुस्कान हमें ज्यादा आश्वस्त करती है। 
  • अपने ग्राहकों को कभी धोखा न दें और उनसे कभी झूठ न बोलें। आपको उनकी जरूरत है। 
  • ग्राहक की प्रसन्नता का लक्ष्य लेकर चलनेवाला ही सफलता की       सीढियां चढ़ता है। 
  • नियम-1 - उपभोक्ता हमेशा सही होते हैं।
  • नियम-2 - यदि उपभोक्ता कभी गलत जान पड़े तो नियम-1 को बार-बार पढ़ें।
  • (क) जब उपभोक्ता की अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती है, तो उसे उपभोक्ता की असंतुष्टि कहते हैं।
  • (ख) जब उपभोक्ता की अपेक्षाएँ पूरी होती हैं, तो उसे उपभोक्ता-संतुष्टि कहते हैं। 
  • (ग) जब उपभोक्ता की अपेक्षाओं में वृद्धि होती है, तो उसे उपभोक्ता की प्रसन्नता कहते है।

  

   

रविवार, 21 अक्तूबर 2012

भूली-बिसरी यादें

डाकघर इतिहास की प्रमुख तिथियाँ -
*  ई0पू0 540 में पर्सिया के राजा साईस द्वारा डाक सेवा का आरम्भ हुआ था।
*  ई0पू0 322 में चन्द्रगुप्त के शासनकाल में एक व्यवस्थित डाक व्यवस्था का वर्णन मिलता है जिसमें
    कबूतरों (Pigeon Post), घुड़सवारों, ऊंटों, सन्देश-वाहकों व धावकों का बहुत अच्छा उपयोग सैनिक कार्यों,
    गुप्तचर सेवा, राजस्व वसूली, पत्राचार इत्यादि के लिए किया जाता था।
*  ई0पू0 274 में सम्राट अशोक ने डाक व्यवस्था को मज़बूत किया। उसके शासनकाल  में अश्वारोहियों एवं
    हरकारा  के माध्यम से 17वीं शताब्दी तक सन्देश पहुंचाने का काम किया जाता था।
*  ई0 सन 1001 से 1025 तक मो0 गजनी के शासनकाल में पैदल सन्देश - वाहकों का एक अच्छा संगठन था
    जिसे सर्रन के नाम से जाना जाता था जो गुप्तचर विभाग में सन्देश पहुँचाने का कार्य करता था। इसमें
    निजी डाक पहुंचाने वाले को 'अस्कुदर्स' (Askudars) कहा जाता था एवं इसके प्रमुख को साहिब-ए -कारिद
    कहा जाता था।
*  ई0 सन 1186 से 1206 तक मोहम्मद गौरी के शासन काल में ऊँट एवं घुड़सवार डाक वाहकों को जमाज़ा
    (Jamaza) तथा पैदल सन्देश वाहक को क्वासिद कहा जाता था।
*  ई0 सन 1221 से 1226 तक चंगेज़ खां के शासनकाल में घुड़सवार डाक वाहकों के लिए प्रत्येक 25 मील पर
    चौकी बनवाई गई थी। चौकियों पर विश्राम गृह की सुविधा दी गयी थी। एक दिन और एक रात में 250 मील
    की दूरी तय की जाती थी।
*  ई0 सन 1292 से 1318 तक  
*  ई0 सन 1298 - भारत में मुख्यरूप से पठान शासक अलाउद्दीन खिलजी ने घोड़ों एवं पैदल के द्वारा सेना
    का समाचार जानने के लिए  डाक सेवा शुरू की। भारतीय डाक सेवा का जनक कहलानेवाले शेरशाह सूरी ने
    संचार सुविधा का विस्तार करने के लिए अपने शासनकाल (1541-1545) में बंगाल से सिंध तक ग्रैंड ट्रंक
     रोड का निर्माण कराया। साथ ही सड़क के किनारे जगह -जगह सरायें भी बनवाई।  
*  1516 ई0 में हेनरी अष्टम द्वारा ब्राईन ट्यूक को प्रथम मास्टर ऑफ़ पोस्ट  ऑफ़िस बनाया गया।
*  1656 ई0 में सम्राट अकबर ने ऊंटों के माध्यम से डाक भेजने की  व्यवस्था की थी।
*  1672 ई0 में मैसूर के राजा ने सम्पूर्ण राज्य में डाक परिवहन की व्यवस्था की थी।
*  1688 ई0 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा बम्बई (अब मुंबई) में डाकघर-कंपनी पोस्ट-की स्थापना की
    थी।  
*  1773 ई0 में विश्व का प्रथम डाक टिकट पटना में जारी किया गया था। इसका नाम ताम्र (तांबा )टिकट था।
    एक आना और दो आना मूल्य के दो डाक टिकट एक साथ जारी किये गए थे। ताम्र  टिकट के एक तरफ
    अजीमाबाद एकन्नी तथा दूसरी तरफ पटना पोस्ट अंकित था।
      (सन्दर्भ- हिंदुस्तान दैनिक, 9.10.2002- श्री अनिल कुमार, तत्कालीन चीफ़ पोस्टमास्टर, पटना जीपीओ)
*  1774 ई0 में वारेन हेस्टिंग्स ने निजी संचार व्यवस्था को जन सामान्य तक पहुंचाने का काम किया। इस
    अवधि में दो तरह - डिस्ट्रिक्ट पोस्ट  एवं इम्पीरियल पोस्ट - की डाक व्यवस्था का विकास हुआ।
      (क) ज़िला मुख्यालयों तथा राजस्व व् पुलिस अधिकारियों के बीच संचार सुविधा प्रदान करने के लिए
            स्थानीय डाक प्रणाली स्थापित की गयी। इसे डिस्ट्रिक्ट पोस्ट (District Post) कहा जाता था।
      (ख) शाही डाक (Imperial Post) प्रणाली में एक प्रांत से दूसरे प्रांत में डाक लाने -ले जाने का काम किया
             जाता था।
*  सन 1774 ई0 में कलकत्ता (अब कोलकाता), मद्रास (अब चेन्नई) एवं बम्बई (अब मुंबई) में पोस्टमास्टर
    जनरल की नियुक्ति हुई।
*  02.08.1785 को ब्रिस्टल से लन्दन तक मेल कोच सर्विस का परिचालन आरंभ हुआ।
*  15.09.1830 को विश्व में प्रथम मेल ट्रेन का परिचालन लिवरपूल से मैनचेस्टर तक आरम्भ हुआ।
*  सन 1837 ई0 में निजी डाक सेवाओं को प्रतिबंधित करनेवाला अध्यादेश जारी किया गया। भारतीय डाकघर
    अधिनियम, 1837 के लागू होते ही आधुनिक डाकघर का उद्भव हुआ।
*  सन 1840 में लिवरपूल से बोस्टन तक प्रथम मेल स्टीमर समुद्र मार्ग पर चला।
*  06.05.840 को रोनाल्ड हिल के द्वारा पेनी डाक टिकट जारी किया गया था।
*  1852 ई0 में करांची (अब पाकिस्तान) में प्रथम डाक टिकट जारी हुआ था। यह भारत में सिंध के कमिश्नर
    सर बार्टले फेरा ने  सिंदे डाक के नाम से डाक टिकट जारी किया था।
*  09.09.1853 को प्रथम बार रेल द्वारा डाक का संचरण आरम्भ हुआ था।
*  01.10.1854 को एक अलग डाक विभाग का गठन एक अधिनियम के तहत किया गया। विभाग के प्रभारी
   के रूप में एक डाक महानिदेशक की नियुक्ति हुई। साथ ही क्षेत्रीय प्रशासक के रूप में

विजेता

 

सांसारिक वैभव को जीत लेने के बाद  महान के मन में एक अन्य इच्छा जाग्रत हुई। वह इच्छा थी अमृत की प्राप्ति की। अमृत पान करके सिकंदर शरीर से भी अमर हो जाना चाहता था।अमृत की तलाश के लिए उसने अथक प्रयास किया। अंततः उसने उस सरोवर की खोज कर ही ली, जहां अमृत विद्यमान था। सिकंदर काफी खुश था, आखिरकार उसकी आकांक्षा पूरी होनेवाली थी। सरोवर की तरफ झुककर जैसे ही अंजुरि  भर अमृत लेने वाला था कि  उसने कुछ आवाज़ सुनीं। वह पीछे मुड़कर देखा, कुछ जीव, कुछ पशु, कुछ पक्षी उससे कुछ कहना चाह रहे थे। सिकंदर ने देखा, वे  पशु-पक्षी बड़ी ही दुर्गति की अवस्था थे। उनके पंख झड़े हुए, शरीर मुरझाया हुआ, अंधे, लूले,लंगड़े, पंजे रहित बस कंकाल मात्र ही थे। उनमें से एक ने कहा - रुको। सिकंदर, पहले हमारी दशा देख लो, हम भी अमृत की तलाश में थे। तलाश पूरी हुई तो हमने अमृत भी पी लिया और अमर हो गए। अब  हम मर नहीं सकते। देखो, हम अंधे, लूले, कमजोर हो गए हैं, हाथ-पैर जल गए हैं, हम किसी काम के नहीं रहे, हम केवल दुःख ही दुःख भोग सकते हैं। पर मर नहीं सकते। हम चिल्ला रहे हैं, चीख रहे हैं कि कोई हमें मार डालो। लेकिन हमें कोई मार डालो। लेकिन हमें कोई मार नहीं सकता, हम जीवन का आनंद नहीं ले सकते। हम दिन रात प्रार्थना करते हैं कि हम मर जाएँ, बस किसी तरह भी मर जाएँ। लेकिन कोई सुननेवाला नहीं। हमारी दयनीय हालत देख लो और एक बार फिर से विचार कर लो  फिर इस अंजुरि में अमृत जल भरना सिकंदर ने अपना हाथ तुरंत झटक लिया। वह सरोवर से बाहर  आया। अपने घोड़े पर सवार होकर लौट गया। उसने फिर पीछे मुड़कर  एकबार भी अमृत सरोवर की ओर नहीं देखा। क्या आप भी अमृत पान  करना  चाहेंगे?   

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

आदमी

भव्य कोठी के बरामदे में  शानदार कीमती कार खड़ी थी। जिसके पास बेहतरीन ड्रेस पहने प्रभावशाली व्यक्तित्व के व् कोठी का मालिक मुख्य दरवाजे तक चहलकदमी  हुआ फ़ोन पर हँसता हुआ बात कर रहा था। मुख्य दरवाजे पर एक दीन -हीन व्यक्ति हाथ में झाडू लिए प्रकट हुआ और अनुनय भरे शब्दों में कहा-सेठजी, सुबह से सड़क पर सफाई कर  हूँ। आसपास कहीं पानी नहीं है। कृपया पानी पिला दीजिये। मोबाईल पर बातचीत में व्यवधान से सेठजी थोड़ा रुष्ट हो गए और टालते हुए बोले- अभी कोई आदमी नहीं है। हाथ जोड़कर उसी आदमी ने फिर कहा-सेठजी, कुछ देर के लिए आप ही आदमी बन जाइए न ! 

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

डाकिया का दिल

डाकिया का दिल 

एक गाँव में एक विधवा महिला रहती थी। वह अनपढ़ थी। उसका एकलौता बेटा कहीं बाहर नौकरी करता था। वह हर माह अपनी माँ को एक चिट्ठी लिखकर भेजा करता और साथ ही मनीऑर्डर की राशि  भी। ढाई सौ रूपये प्रतिमाह। डाकिया उस माँ को बेटे का ख़त पढ़कर सुनाता, मनीऑर्डर की राशि देता और फिर कोई जवाब माँ की ओर से लिखना हो तो, पूछकर लिख देता। यही क्रम चलता रहा। लेकिन एक दिन दुखों का पहाड़ टूट पड़ा।बेटे की मौत हो गयी। बेटे के एक मित्र के ख़त से यह सूचना माँ को भेजी गयी। डाकिये ने ख़त पढ़ा तो उसके होश उड़ गए। इतने दिनों में डाकिया भी उसकी माँ के साथ आत्मीय हो गया था। अब वह ख़त माँ को पढ़कर सुनाता कैसे? उसने सच्चाई छिपा दी।ख़त को अपने हिसाब से पढ़कर सुना दिया - माँ ! मैं ठीक हूँ, नयी नौकरी ज्वाइन करने वाला हूँ। शायद एक साल तक घर न आ सकूँ। तुम्हें पैसा भेजता रहूँगा, तुम अपना ख्याल रखना ....... आदि। डाकिये ने माँ को हर बार की तरह मनीऑर्डर की 250 रुपये की राशि भी दी। वह डाकिया हर माह ऐसा ही करता था। माँ को काल्पनिक चिट्ठियां पढ़कर सुनाता और मनीऑर्डर की 250 रुपये की राशि देता। लेकिन माँ को पता नहीं कैसे अनुभव हुआ पांच-छः माह बाद उसने एक बार डाकिये को बिठाकर पूछा कि सच्चाई क्या है। उसे आभास हो गया था कि कहीं कुछ अनचाहा हुआ है और जो उससे छिपाया जा रहा है। डाकिये ने बूढ़ी माँ को विश्वास दिलाना चाहा कि यह उसका वहम है। लेकिन निदा फाज़ली के अनुसार - " मैं रोया परदेश में, भींगा माँ का प्यार ! दिल ने दिल् से बात कही,ना चिट्ठी न तार !!"  उसका बेटा हर माह मनीऑर्डर भेज रहा है। साथ ही चिट्ठियां भी लिख रहा है। लेकिन माँ का मन नहीं माना। माँ उसे गाँव के मंदिर में ले गयी। उसे कसम खिलायी। तब डाकिये ने सारा सच बता दिया।

             कैसा होगा वह डाकिया, जिसने अपने कर्मों को सिर्फ नौकरी तक सीमित नहीं रखा?         

ग्राहक सेवा का सर्वोत्तम तरीका


ग्राहक  सेवा  का  सर्वोत्तम  तरीका 

       ग्राहकों  की  ख़ुशी के लिए डाक कर्मचारियों को अपना समय और ध्यान देना  बहुत  जरूरी है। ग्राहक की संतुष्टि  वहनीय  एवं लाभदेय  है। वहनीय  इसलिए  कि  एक संतुष्ट ग्राहक के पास हमेशा खर्च करने के लिए पैसे होते हैं और वह पैसे तभी खर्च करता है जब  मिलने वाले लाभ एवं कीमत के बारे में वह आश्वस्त हो जाय। याद रखिये , ग्राहक हमेशा सही सेवा खोजता है और सेवा के फायदे बेचने की जिम्मेदारी डाक कर्मचारियों की है। वफादार, उत्साही  और लाभदायक ग्राहक को पहचानिए। उस पर  कल्पनात्मक गर्व  कीजिये और उसे महत्व दीजिये। बेहतर ग्राहक सेवा बेहद खर्चीले विज्ञापन से कहीं ज्यादा प्रभावी होती है। बिजनेस  तभी सफल होता है, जब मौजूदा ग्राहकों को संतुष्ट रखा जाये और इस प्रक्रिया के चलते नए ग्राहक को  भी आकर्षित किया जाय। 
         बेहतर सेवा के बहुत सारे पहलू होते हैं। उत्पाद की समस्या से ग्रस्त ग्राहक तक सेवा पहुँचाना बहुत जरूरी है।  प्रत्येक  समस्या के कम से कम दो पहलू होते हैं। कई बार ग्राहक कायदे से ज्यादा  की उम्मीद करता है। लेकिन ज्यादातर दोनों के बीच की स्थिति होती है। सच कहा जाय तो बहुत सी समस्याएँ तकनीकी न होकर मानवीय संबंधों से जुड़ी होती है। प्रायः ग्राहक उम्मीद करता है कि उसकी समस्या सुलझाने के लिए कोई न कोई जरूर समय देगा, यह  अलग बात है कि इससे उसकी पूरी संतुष्टि न हो। अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि अधिक प्रतिस्पर्धा , सूचना विस्फोट तथा ग्राहकों के प्रति चेतना के कारण सुपरवाईजर  एवं कर्मचारी  को तकनीकी  रूप से कुशल होने के साथ-साथ लोगों से व्यवहार करने में भी कुशल होना चाहिए  यानी मानव संबंधों में उसे श्रेष्ठ होना चाहिए। अतः  हमें हमेशा याद  चाहिए  कि तकनीकी पहलुओं की अपेक्षा मानव संबंधों से निपटना ज्यादा अहम् है। ग्राहक मुख्यतया   ज्यादा  लाभ एवं प्रतिष्ठा की वजह से स्वार्थी होते हैं। परन्तु उनके प्रति आपका व्यवहार परम्परा के अनुसार होना चाहिए। जैसे-जैसे आप  आगे  बढ़ेंगे , आप नई बातें सीखते जायेंगे। ग्राहक से चमत्कार की आशा मत कीजिये, स्पष्टवादी बनिए। ऑफिस या काउंटर चलाने का  मतलब है- लाभ के लिए लोगों को संभालना। आप ग्राहक से झगड़ा कभी मत कीजिये और न ही उसे कायदे दिखाइए। ऐसी स्थिति से निबटने के लिए चतुराई से काम लीजिये। यदि आपका ग्राहक नाराज हो जाता है तो वह आइन्दा आपके पास कभी नहीं आयेगा और वह आपका दुष्प्रचारक बन जाएगा।
             हम जो भी काम करते हैं , वह हमारा पेशा है और अच्छे पेशे का मतलब है-लाभ के लिए लोगों को संभालना। यह जान लेना जरूरी है कि हमारे कर्मचारी और ग्राहक हमारे अतीत ,वर्तमान और भविष्य है। 
              प्रायः सुनने में आता है कि अमुक विभाग में काम ठीक  ढंग से नहीं होता है। लेकिन ऐसा क्यों होता है? सीधी -सी बात है कि  हमारी  छवि जैसी होगी ,विभाग की छवि भी वैसी ही होगी। यह केवल एक कर्मचारी के बस की  बात नहीं है। विभाग की छवि बेहतर बनाने के लिए सामूहिक प्रयास अर्थात टीमवर्क करना होगा। डाकघर का काम टीम का काम है।जब हमारी टीम अच्छा काम करेगी - डाकघर का काम अच्छा होगा। जब डाकघर का काम अच्छा होगा तो हमारे विभाग की छवि बेहतर होगी। इतना ही नहीं - इसका सकारात्मक प्रभाव हमारी अगली पीढ़ी  अर्थात हमारे परिवार के बच्चों पर भी पड़ता है। तो आइये , हम अपने विभाग के लिए एक साथ मिलकर कुछ अच्छा करके दिखावें।

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

डाक मुस्कान ब्लॉग

डाक  मुस्कान ब्लॉग के बारे में 

प्यारे दोस्तो ! 

                   नमस्कार। 'डाक मुस्कान ' ब्लॉग पर आपका स्वागत है। मैं हूँ जयकृष्ण रजक। मैं  फिलहाल भागलपुर प्रधान डाकघर में पोस्टमास्टर (आई 0पी 0ओ 0 लाईन ) के पद पर कार्यरत हूँ i डाकघर में कार्य करने का मुझे मात्र चार साल का ही अनुभव है।काम के दौरान मैंने महसूस किया है कि डाकघर के कर्मचारी बहुत कर्मठ होते हैं। वे जोश, ज़ज्बे और जुनून से भरे होते हैं।फिरभी इस बात की जरूरत है कि डाककर्मियों के सुसुप्त पड़ी आतंरिक क्षमता को कैसे विकसित किया जाय ताकि हमारे रिश्तों, स्वास्थ्य तथा डाक व्यव्साय को समग्र रूप से सफल और सार्थक बनाया जा सके। इसीको ध्यान में रखकर  इस ' डाक मुसकान ' ब्लॉग को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
                       दोस्तो ! जिस प्रकार  बेजान मिट्टी भांति -भांति के फूल , इन्द्रधनुषी रंग और तरह -तरह की खुशबू पैदा कर सकती है। उसी मिट्टी से परिवर्तित यह मानव शरीर, जिसमें चेतना होती है, जिंदगी भर किसी प्रकार के रंग बिरंगे फूल खिलाकर जीवन को महका नहीं पाटा।हम 'डाक मुस्कान' के माध्यम से कोशिश करना चाहेंगे कि आपकी जिन्दगी में रंग -बिरंगे फूल खिले और आपका जीवन इन्द्रधनुषी रंगों से खूबसूरत बने।आपका जीवन तरह -तरह की खुशबुओं से सराबोर होकर आकर्षक बने।हम उम्मीद कर सकते हैं कि आप इस ब्लॉग को पढ़ते रहेंगे तथा अपनी प्रतिक्रिया से हमारा  उत्साहवर्धन  करते रहेंगे।

आपका शुभेक्षु 
जयकृष्ण रजक