बात 1980 ई0 से पहले की है, जब हाजीपुर और पटना के बीच गाँधी सेतु नहीं बना था। उत्तर बिहार और राज्य की राजधानी के बीच आवागमन का एकमात्र साधन हाजीपुर-सोनपुर होते हुए पहलेजा घाट और दीघाघाट के बीच गंगा नदी पर चलनेवाला स्टीमर था। इसी स्टीमर की सहायता से डाक की ढुलाई का काम भी होता था। पहलेजा घाट में डाक आदान-प्रदान करने के लिए एक छोटा-सा ट्रांजिट मेल ऑफिस भी था जिसमें अट्ठारह मेल पोर्टर स्टीमर से डाक के आदान-प्रदान करने के किये तैनात थे। सभी मेल पोर्टर अपना-अपना लंच काम पर साथ लाते थे एवं अपने शिफ्ट के अन्य कर्मचारियों के साथ मिल बैठ कर खाते पीते थे। ट्रांजिट मेल ऑफिस के पास ही एक सांढ़ (Bull) रहता था। सभी मेल पोर्टर नियमित रूप से, बड़े प्रेम से अपने लंच बॉक्स में से एक-एक रोटी निकलकर एवं इकठ्ठा कर उस सांढ़ को खाने के लिए दे देते थे। मेल कार्यालय से स्टीमर तक तथा स्टीमर से मेल कार्यालय तक डाक ढोने के लिए एक-दो डाक ठेला (Mail Cart) थे। सांढ़ ऑफिस के इर्द-गिर्द खा-पीकर आराम फरमाता या मंडराता रहता और डाक थैले को लादता हुआ देखता रहता था। ज्योंही ठेले पर डाक थैले का लदान पूरा होता, वह सांढ़ ठेले के नज़दीक आता। उसके हत्थे (Handle Rod) में अपना सींग फंसाता और उसे गंतव्य तक ठेल कर पहुंचा देता। मतलब यह कि स्टीमर से डाक कार्यालय और डाक कार्यालय से स्टीमर तक ठेला चलाना उसी सांढ़ का काम था। सांढ़ को ऐसा करते हुए लोगों ने बहुत दिनों तक देखा।
[यह कहानी मैंने रेल डाक निरीक्षक, सोनपुर के पद पर रहते सुनी थी। सोनपुर रेल डाक सेवा में कार्यरत बंगाली बैठा, डाक पोर्टर (घर पहलेजा), नागेश्वर सिंह मेल गार्ड, उमेश शर्मा व दिनेश शर्मा, पोर्टर आदि बड़े चाव से सुनाते थे। वास्तव में यह सच्ची कहानी दिल छू लेनेवाली है। जब एक जानवर कुछ रोटियाँ खाकर मेल पोर्टरों का इतना वफादार बन सकता है। बगैर किसीके आदेश या दवाब के ईमानदारी से रोटी का ऋण चुका सकता है। फिर हम तो एक इंसान हैं।]
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